एक शांत गांव का खौ़फनाक राज
यह Hindi Crime Story एक छोटे से गांव आकार की है, जो कर्नाटका के उडुपी जिले में बसा था। यह गांव इतना शांत था कि यहां के लोग अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में खोए रहते थे। लोग इस गांव को स्वर्ग से कम नहीं मानते थे। हरे-भरे खेतों और तंग गलियों में चलते हुए आपको महसूस होता था जैसे समय भी यहाँ रुक सा गया हो। लेकिन फिर एक रात ऐसा हुआ कि गांव की सारी शांति चुपके से दरक गई। एक खौ़फनाक राज सामने आया जिसने गांव को हिला कर रख दिया।
इस गांव में बालकृष्ण पुरी नाम का एक आदमी रहता था, जो अपने संघर्ष और मेहनत के बल पर एक होटल मालिक बन चुका था। उसकी ज़िंदगी साधारण और सुखी थी। उसकी पत्नी, प्रतिमा, उसकी साथी थी, और दोनों के बीच कभी भी कोई बड़ी दिक्कत नहीं थी। आकार गांव के निवासी 44 वर्षीय बालकृष्ण पुरी एक मेहनती व्यक्ति थे जिन्होंने अपने संघर्षों के बावजूद हार नहीं मानी। अपनी मेहनत के बल पर उन्होंने एक होटल स्थापित किया। उनके माता-पिता और भाई-बहन उनके साथ रहते थे। 2007 में, उन्होंने प्रतिमा से विवाह किया। वे मध्यम आय वर्ग से संबंधित थे और स्थिर एवं संतुष्ट जीवन जी रहे थे।

समय के साथ, बालकृष्ण और प्रतिमा के दो बच्चे हुए। बच्चों की बढ़ती शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रतिमा ने काम करने का निर्णय लिया। बालकृष्ण ने उन्हें नौकरी करने के बजाय एक ब्यूटी पार्लर शुरू करने की सलाह दी। प्रतिमा ने ब्यूटी कोर्स किया, और बालकृष्ण ने उनकी मदद से उनके घर के पास एक छोटा सा ब्यूटी सैलून स्थापित किया।
यद्यपि उनके बीच कभी-कभी बहस होती थी, लेकिन उनका विवाह मजबूत बना रहा। जब भी विवाद होते, प्रतिमा के भाई, संदीप, मध्यस्थता करते। बालकृष्ण और संदीप की गहरी मित्रता थी, जो समुदाय में प्रसिद्ध थी।
एक रहस्यमय बीमारी
17 वर्षों तक बालकृष्ण और प्रतिमा का विवाहिक जीवन सुचारू रूप से चला। लेकिन अगस्त 2024 में, बालकृष्ण अचानक बीमार पड़ गए। उन्हें लगातार उल्टी और बुखार हो रहा था, जो ठीक नहीं हो रहा था। परिवार ने इसे मौसमी बीमारी मानकर स्थानीय डॉक्टर से परामर्श किया। हालांकि, उनकी सेहत में उतार-चढ़ाव बना रहा—कभी सुधार होता, तो कभी फिर से बिगड़ जाती।
चिंतित होकर, परिवार ने उन्हें कई अस्पतालों में दिखाया, लेकिन कोई भी डॉक्टर उनकी बीमारी का निदान नहीं कर सका। अक्टूबर 2024 में, उन्हें बेंगलुरु के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्टरों ने अंततः उन्हें स्थिर और स्वस्थ घोषित किया। 19 अक्टूबर को, दो महीने की लंबी संघर्ष के बाद, बालकृष्ण अपने गांव लौटे। उनके रिश्तेदार राहत महसूस कर रहे थे और उन्हें देखने के लिए उनके घर एकत्रित हुए।
अचानक मौत और उठते सवाल
उस रात प्रतिमा ने सबसे रिक्वेस्ट की कि वे घर चले जाएं, यहां तक कि अपने भाई संदीप से भी, जो काफी परेशान लग रहे थे। प्रतिमा बार-बार रोते हुए समझा रही थी कि बालकृष्ण अब ठीक हैं, बस उन्हें आराम की जरूरत है। उसकी आंखें सूजी हुई थीं, चेहरा उतरा हुआ था, और वह अपने पति के सिर पर हाथ फेरते हुए लगातार रोए जा रही थी। घर के लोगों ने भी नोटिस किया कि वह किस तरह बालकृष्ण के पास बैठी रही, धीरे-धीरे कुछ बड़बड़ाती रही, कभी भगवान से प्रार्थना करती, तो कभी उनके सीने पर सिर रखकर सुबकने लगती।
रात 11 बजे तक सब लोग घर चले गए। घर में अब बस सन्नाटा था। प्रतिमा भी भारी मन से सोने चली गई। लेकिन उसकी आंखों में नींद कहां थी? वह करवटें बदलती रही। सुबह करीब 3:30 बजे उसे प्यास लगी तो वह पानी पीने के लिए उठी। गिलास में पानी डालते हुए उसकी नजर बालकृष्ण पर पड़ी, और वह ठिठक गई। कुछ अजीब था। वह जल्दी से उनके पास गई, लेकिन उनके शरीर में कोई हलचल नहीं थी। उसने घबराकर उन्हें हिलाया, पर कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला।
प्रतिमा के हाथ-पैर कांपने लगे। उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसने घबराकर पूरे घर को जगा दिया। कुछ ही मिनटों में पूरा परिवार बालकृष्ण के कमरे में था। कोई उनके हाथ पकड़कर देख रहा था, कोई उन्हें हिला रहा था, पर सबकी आंखों में डर साफ था। प्रतिमा ज़मीन पर बैठकर जोर-जोर से रोने लगी, उसकी चीखें पूरे मोहल्ले में गूंज गईं। देखते ही देखते घर में कोहराम मच गया।
जल्द ही रिश्तेदारों और पड़ोसियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। एक स्थानीय डॉक्टर को बुलाया गया, जिसने पुष्टि की कि बालकृष्ण अब इस दुनिया में नहीं रहे। परिवार और गांव के लोगों ने मान लिया कि लंबी बीमारी की वजह से उनकी मृत्यु हो गई। माहौल गमगीन था, प्रतिमा जमीन पर बैठी सिर पटक-पटककर रो रही थीं। उनके आंसू थम ही नहीं रहे थे। संदीप और अन्य रिश्तेदारों ने उन्हें संभालने की कोशिश की, लेकिन वह बेसुध हो चुकी थीं।
घरवालों ने जल्द से जल्द अंतिम संस्कार की तैयारियां शुरू कर दीं। बालकृष्ण के शव को नहलाया गया, सफेद कपड़ों में लपेटा गया, और फिर सभी लोग उसे अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट ले गए। संदीप और कुछ करीबी दोस्त भी साथ थे, सभी की आंखें नम थीं। जैसे ही शव को चिता पर रखने की बारी आई, एक पुरानी परंपरा के अनुसार, संदीप और उसके दोस्त ने अंतिम बार बालकृष्ण के चेहरे को देखने के लिए सफेद कपड़ा हटाया।
इसी दौरान, एक दोस्त की नजर बालकृष्ण की गर्दन पर गई। हल्की रोशनी में भी कुछ असामान्य नजर आ रहा था। उसने ध्यान से देखा और घबराकर संदीप को इशारा किया। संदीप ने गौर से देखने के लिए टॉर्च जलाई, और जो दिखा, उसने सभी को सन्न कर दिया। बालकृष्ण के चेहरे और गर्दन पर लाल निशान थे—कुछ ज्यादा ही गहरे और संदिग्ध।
संदीप के मन में कुछ खटकने लगा। उसने तुरंत चिता को आग लगाने से रोक दिया और शव को ध्यान से देखने लगा। अब तक अन्य लोग भी चौकन्ने हो चुके थे। उन्होंने तुरंत पुलिस को सूचना दी और शव को वापस घर ले जाने का फैसला किया। कुछ ही देर में पुलिस पहुंच गई, और शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। प्रतिमा, जो अब तक बेसुध रो रही थी, अचानक चुप हो गई। उसके चेहरे पर चिंता और घबराहट के मिले-जुले भाव थे। संदीप को अब पूरा यकीन हो गया था कि कुछ गड़बड़ जरूर है।
उन्होंने प्रतिमा से उनके बारे में पूछा। उन्होंने दावा किया कि घबराहट में, उन्होंने बालकृष्ण पर पानी की बोतल फेंकी, जिससे ये निशान बने। लेकिन संदीप आश्वस्त नहीं थे।
संदेह और चौंकाने वाला स्वीकारोक्ति
संदीप अपने संदेह को दूर नहीं कर सके। उन्होंने बालकृष्ण के पिता, संजीव पुरी, से पोस्टमार्टम कराने की अनुमति देने का आग्रह किया। मामले की गंभीरता को समझते हुए, संजीव ने सहमति दी। 21 अक्टूबर को, बालकृष्ण के शरीर का पोस्टमार्टम किया गया, और अगले दिन उनका अंतिम संस्कार किया गया।
23 अक्टूबर को, संदीप ने अपनी बहन प्रतिमा को एकांत में बुलाया। उसके मन में कई सवाल उठ रहे थे, और वह जानता था कि अगर उसने सीधे आरोप लगाए, तो प्रतिमा कोई न कोई बहाना बना लेगी। उसने पहले सहजता से बात शुरू की, यह दिखाने के लिए कि वह सिर्फ हालात समझना चाहता है। उसने पूछा कि क्या उस रात कोई घर आया था। प्रतिमा ने बिना हिचकिचाए इनकार कर दिया, लेकिन संदीप उसकी घबराहट को भांप चुका था। फिर उसने एक बड़ा दांव खेला और कहा कि उसे पहले से ही उसके और दिलीप के रिश्ते के बारे में सब कुछ पता है। यह सुनते ही प्रतिमा का चेहरा उतर गया, उसके हाथ कांपने लगे, और उसके माथे पर पसीना आ गया। वह समझ चुकी थी कि अब झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं होने वाला।
संदीप ने और दबाव डालने के लिए फोन निकाला और ऐसे दिखाया जैसे उसके पास कोई रिकॉर्डिंग हो। यह देखकर प्रतिमा पूरी तरह डर गई और आखिरकार टूट गई। उसने सुबकते हुए कबूल किया कि जिस रात बालकृष्ण घर लौटा था, उसी रात उसने दिलीप को फोन किया और कहा कि अब और इंतजार नहीं कर सकती। जैसे ही घर के सभी लोग सो गए, उसने दरवाजा खुला छोड़ दिया, और रात करीब 1:30 बजे दिलीप घर में घुसा। वह काले कपड़ों में था और चेहरे पर रुमाल बांधे हुए था ताकि कोई उसे पहचान न सके। प्रतिमा ने इशारे से उसे बालकृष्ण के कमरे की ओर जाने को कहा, जहां वह गहरी नींद में था। कुछ देर तक दोनों चुपचाप खड़े रहे, जैसे खुद को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हों। दिलीप ने अपनी जेब से चाकू निकाला और उसकी धार पर उंगली फेरने लगा, लेकिन प्रतिमा ने सिर हिलाकर इशारा किया कि इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी।
प्रतिमा ने धीरे से बालकृष्ण के हाथ पकड़ लिए ताकि वह हिल न सके, और दिलीप ने तकिया उठाकर धीरे-धीरे उसके चेहरे पर रख दिया। अचानक संघर्ष शुरू हो गया, बालकृष्ण छटपटाने लगे, लेकिन उनकी ताकत अब पहले जैसी नहीं थी। प्रतिमा ने पूरी ताकत से उन्हें दबाए रखा ताकि वह खुद को छुड़ा न सकें। कुछ ही मिनटों में उनका शरीर निढाल हो गया, और कमरे में सन्नाटा छा गया। प्रतिमा हांफते हुए पीछे हट गई, उसकी आंखों में आंसू थे, लेकिन दिलीप ने उसे झिड़कते हुए कहा कि अब पछताने का कोई फायदा नहीं। इसके बाद, प्रतिमा ने जल्दी से घर को ठीक किया, दिलीप को बाहर निकाला और दरवाजा बंद कर लिया, ताकि किसी को कोई शक न हो।
सुबह होते ही उसने सबसे पहले जोर-जोर से चीखकर परिवार वालों को बुलाया, खुद को एक दुखी पत्नी के रूप में पेश किया, और पूरे गांव में यह खबर फैल गई कि बालकृष्ण की अचानक मृत्यु हो गई। लेकिन संदीप को कुछ ठीक नहीं लग रहा था। उसने जब अंतिम संस्कार से पहले बालकृष्ण के चेहरे और गर्दन पर अजीब निशान देखे, तो वह अंदर ही अंदर परेशान हो गया। जब शव को अग्नि के हवाले करने की तैयारी चल रही थी, तभी संदीप ने रुकने को कहा और जोर देकर कहा कि पोस्टमार्टम कराया जाए। पुलिस को सूचना दी गई, और जब रिपोर्ट आई तो साफ हो गया कि बालकृष्ण की मौत प्राकृतिक नहीं थी। इसके बाद संदीप ने पुलिस को वह सब कुछ बता दिया जो उसने अपनी बहन से उगलवाया था। पुलिस ने प्रतिमा और दिलीप को गिरफ्तार कर लिया, और उनके खिलाफ हत्या और आपराधिक साजिश का मामला दर्ज कर लिया गया।
जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, यह खुलासा हुआ कि प्रतिमा और दिलीप ने बालकृष्ण की हत्या की योजना बहुत पहले ही बना ली थी। लेकिन इसे अंजाम देने के लिए वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। उन्हें यकीन था कि अगर बालकृष्ण अचानक मर गया, तो शक उन पर आ सकता है। इसलिए उन्होंने पहले उसे धीरे-धीरे जहर देकर कमजोर करने की योजना बनाई।
प्रतिमा ने पिछले कुछ महीनों में लगातार बालकृष्ण के खाने में जहर मिलाना शुरू कर दिया। उसने अरसेनिक ट्रायऑक्साइड—जो आमतौर पर ब्लड कैंसर के इलाज में कीमोथेरेपी के रूप में इस्तेमाल होता है—का इंतजाम दिलीप के जरिए करवाया। दिलीप ने मेडिकल स्टूडेंट बनकर यह जहर एक दवा विक्रेता से खरीदा और फिर उसे छोटे-छोटे पैकेट्स में बांटकर प्रतिमा को दे दिया। प्रतिमा बड़ी चालाकी से हर दिन बालकृष्ण के चावल में इसकी हल्की मात्रा मिलाने लगी, ताकि उसे तुरंत कोई संदेह न हो।
धीरे-धीरे, इस ज़हर का असर होने लगा। बालकृष्ण की सेहत बिगड़ने लगी। पहले उसे हल्का बुखार और कमजोरी महसूस होने लगी, लेकिन कुछ हफ्तों बाद उसकी हालत गंभीर हो गई। वह लगातार उल्टियां करने लगा, खाना नहीं खा पाता था, और धीरे-धीरे उसका शरीर जवाब देने लगा। उसे कई बार चक्कर आने लगे, और एक दिन वह अचानक बेहोश होकर गिर पड़ा।
प्रतिमा ने सोचा था कि धीरे-धीरे जहर देने से बालकृष्ण खुद ही मर जाएगा और किसी को शक भी नहीं होगा, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। परिवारवालों ने जब उसकी गंभीर हालत देखी, तो उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया गया। पहले उसे करकला के रोटरी अस्पताल ले जाया गया, लेकिन वहां उसकी हालत और बिगड़ गई। डॉक्टरों को शक हुआ कि उसे किसी तरह का जहरीला पदार्थ दिया गया है, लेकिन परिवार ने इसे पीलिया और संक्रमण समझा।
जैसे ही बालकृष्ण की हालत और बिगड़ी, उसे मणिपाल के केएमसी अस्पताल और फिर मंगलुरु के वेनलॉक अस्पताल में भर्ती किया गया। यहां के डॉक्टरों ने बताया कि उसकी किडनी और लिवर गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो चुके हैं, लेकिन सही समय पर इलाज मिलने के कारण उसकी जान बच सकती है। इसके बाद उसे बेंगलुरु के निमहांस और विक्टोरिया अस्पताल भेजा गया, जहां कई दिनों के इलाज के बाद उसकी हालत थोड़ी स्थिर हो गई।
यह सुनकर प्रतिमा और दिलीप दोनों परेशान हो गए। उनकी महीनों की मेहनत बेकार चली गई थी। बालकृष्ण बच गया था, लेकिन अब उसकी तबीयत पहले जैसी नहीं रही। वह बेहद कमजोर हो चुका था और हमेशा थका-थका सा रहता था। यही वह समय था जब प्रतिमा और दिलीप ने फैसला किया कि अब धीमी मौत का इंतजार नहीं किया जा सकता। अब उन्हें इस काम को एक ही रात में खत्म करना था। यही सोचकर उन्होंने बालकृष्ण की हत्या की दूसरी और आखिरी साजिश रच डाली।
एक गलत फैसला जो जिंदगी बदल गया
जैसा कि चार्जशीट में दर्ज है, प्रतिमा ने पुलिस के सामने अपना जुर्म कबूल करते हुए पूरी कहानी स्टेप बाय स्टेप बताई। उसने बताया कि कैसे एक छोटे से फैसले ने उसकी पूरी जिंदगी को बर्बाद कर दिया। जब उसने अपने घर के पास एक ब्यूटी पार्लर खोलने का फैसला किया, तो उसे लगा था कि यह उसकी खुद की पहचान बनाने और घर में कुछ आर्थिक सहयोग देने का जरिया बनेगा। लेकिन यही पार्लर उसके लिए ऐसी दुनिया का दरवाजा खोल देगा, जिसका अंदाजा उसने कभी सपने में भी नहीं लगाया था।
शुरुआत में सबकुछ अच्छा चल रहा था। पार्लर पर औरतें आतीं, सजती-संवरतीं, और घर लौट जातीं। लेकिन एक दिन निरूपा नाम की महिला उसके पार्लर में आई। पहली बार मिलने पर वह एक साधारण ग्राहक लगी, लेकिन धीरे-धीरे प्रतिमा को एहसास हुआ कि यह औरत अलग थी। वह अक्सर गंदी फिल्मों और अपने अनैतिक संबंधों की बातें करती थी। शुरू में प्रतिमा को ये बातें अजीब लगती थीं, लेकिन धीरे-धीरे वह इन सबमें रुचि लेने लगी। निरूपा ने उसकी सोच बदल दी। अब उसकी दुनिया सिर्फ घर, परिवार और पति तक सीमित नहीं रही। उसके मन में भी वैसा ही रोमांच पैदा होने लगा, जैसा वह फिल्मों में देखती थी।
निरूपा ने उसे दिलीप से मिलवाया, जो उसी के गांव का एक नौजवान था। दोनों की दोस्ती जल्दी ही गहरी हो गई, और यह दोस्ती एक गहरी वासना में बदल गई। प्रतिमा का ब्यूटी पार्लर अब सौंदर्य सुधारने की जगह एक गुप्त अड्डा बन गया, जहां वह और दिलीप चोरी-छिपे मिलते। प्रतिमा जो कभी अपने पति से बेइंतहा प्यार करती थी, अब उसके साथ रहते हुए भी उसके बारे में कम ही सोचती। उसकी कल्पनाओं की दुनिया अब बदल चुकी थी, और उसमें सिर्फ दिलीप था।
शुरू में यह एक खेल जैसा लगा, लेकिन जब बालकृष्ण के व्यवहार में बदलाव आने लगा, तब प्रतिमा को एहसास हुआ कि वह दो दुनियाओं के बीच फंस गई है। उसका पति अधिक बीमार रहने लगा, लेकिन प्रतिमा को अब उससे कोई लगाव नहीं था। उसका ध्यान दिलीप पर था, और वह उससे शादी करने के ख्वाब देखने लगी। लेकिन यह तभी मुमकिन था जब बालकृष्ण उनकी जिंदगी से पूरी तरह गायब हो जाए। इसी सोच ने उसे और दिलीप को खतरनाक रास्ते पर धकेल दिया।
जिस रात उन्होंने बालकृष्ण की हत्या की, उस रात उसने सोचा था कि सबकुछ खत्म हो गया है और अब वह एक नई जिंदगी शुरू कर सकेगी। लेकिन जब संदीप ने अंतिम संस्कार से पहले बालकृष्ण के गले पर निशान देखे और मामले की जांच शुरू हुई, तो उसका बनाया हुआ झूठ का किला भरभराकर गिर गया। संदीप ने चालाकी से उसे बातों में उलझाया, और जब उसने उसे यह विश्वास दिलाया कि वह सब कुछ पहले से जानता है, तो प्रतिमा अपने डर से हार गई और सब कुछ उगल दिया। जब पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया, तब पहली बार उसे एहसास हुआ कि उसने अपनी जिंदगी ही नहीं, अपने बच्चों की जिंदगी भी बर्बाद कर दी है।
जेल में बैठकर उसने कई बार सोचा कि अगर उस दिन उसने पार्लर खोलने का फैसला न किया होता, तो शायद उसकी जिंदगी आज भी पहले जैसी होती—सुखी और शांत। अगर उसने निरूपा जैसी दोस्ती को स्वीकार नहीं किया होता, तो शायद उसकी सोच कभी नहीं बदलती और वह अपनी शादीशुदा जिंदगी में खुश रहती। लेकिन लालच, वासना और झूठे सपनों ने उसकी दुनिया को उजाड़ दिया।
इस कहानी से हम सबको एक सबक लेना चाहिए। एक गलत संगत, एक गलत दोस्त, और एक गलत फैसला आपकी पूरी जिंदगी बर्बाद कर सकता है। आपको नहीं पता कि आपके आस-पास कौन आपके अच्छे जीवन को बर्बाद करने के इरादे से बैठा है। इसलिए सतर्क रहें, और इस कहानी को अपने दोस्तों के साथ शेयर करें—शायद कोई ऐसा व्यक्ति जो ऐसी ही किसी परिस्थिति में है, इससे सबक ले और अपनी जिंदगी बचा सके। क्योंकि कभी-कभी, हम सीधे तौर पर किसी को नहीं समझा सकते, लेकिन एक कहानी ही उसे रास्ता दिखाने के लिए काफी होती है।
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